PALTHU JANWAR MOVIE REVIEW: बेसिल जोसेफ़ की 'पालतू जानवर' दिल में जगह बनाने के लिए तैयार



एमपी नाउ डेस्क


PALTHU JANWAR MOVIE REVIEW: पालतू जानवरों से किसे नही लगाव होता हैं, ग्रामीण क्षेत्र हों या शहरी इलाका हर हिस्से में आपकों पालतू जानवर देखने को मिल ही जायेंगे। शहरी इलाकों में जहां कुत्तों और बिल्ली जैसे जानवरों की अधिकता होती है तो वही ग्रामीण इलाकों में विभिन्न प्रकार के पालतू जानवर देखने को मिल जायेंगे, इन पालतु जानवरों के साथ एक बात कॉमन होती हैं इनका अपने मालिकों के प्रति स्नेह और इनके मालिकों का अपने पालतू जानवरों के प्रति स्नेह। ऐसी ही पालतू जानवरों कि दिल छु लेने वाली कहानी को मलयाली सिनेमा के निर्देशक संगीत पी राजन ने अपनी फिल्म 'पालतू जानवर’ के माध्यम से दर्शकों के सम्मुख पेश की है। 

यह फिल्म केरल के ग्रामीण इलाके के एक ऐसे परिवेश की है, जहां के ज्यादातार ग्रामीण अपने जीवनयापन के लिये पालतू पशुओं के ऊपर निर्भर हैं। ऐसे में इन ग्रामीणों के लिये पशु विभाग एक जरुरी उपक्रम है जो समय- समय पर उनकी मदद करता है लेकिन जैसा हमेशा ही देखा जाता है कि सरकारी दफ्तरों में कार्यरत कर्मचारियों में अपने काम के प्रति लापरवाही होती है कुछ स्वंय उनकी तो कुछ सिस्टम की खामियां बस इसी विषय को एक पशु विभाग में नये जॉइन हुये पशु चिकित्सक कंम्पाउडर के जरियें दिखाया गया है।


एक नया एलआई (पशु चिकित्सक का हेल्पर) प्रसुन (बेसिल जोसेफ़) नई ड्युटी ज्वाइन करता है, जिसे वह नौकरी अपने पिता की मत्यु के बाद अनुकम्पा में मिली होती है। यह ड्युटी करना उसके लिये एक मज़बुरी है क्योंकि वह एनिमेटर के काम में अपना बहुत बडा नुकसान कर बैठता है, उसके ऊपर एक कर्ज है। नई नोकरी के दौरान कई चुनौतियां उसके सामने मौजुद है। जिसमें शीर्ष अधिकारियों के साथ तालमेल ग्रामीणों की अपेक्षाओं को पूरा करना एक बने बनाएं सिस्टम में खुद को एरजेस्ट करना। 

ऐसी कई चुनौतियां जिससे पार पाने में वह बार-बार असफल हो रहा हैं लेकिन वह इन परेशानियों से जुझने की कोशिश जारी रखता है इस दौरान एक गलत उपचार की वजह से पुलिस डिपार्टमेंट में कार्यरत एक कुत्ते की मौत से उसे लाइन हाज़िर कर दिया जाता है। वह उस कुत्ते की मौत को एक आम मौत समझता है, उसकी यह सोच कैसे बदलेगी वह आगे नोकरी करेगा यह नही इसके लिये आपकों फिल्म देखनी पड़ेगी। 


यह फिल्म बिल्कुल आम कहानी है, आपके बीच की आपकी कहानी है। हीरों की जर्नी में आपकों ऐसा महसुस हो कि यह भी क्या संघर्ष है लेकिन ऐसी कहानियां आपकों प्रेरित करती है, जब आप इसकों स्वयं से जोड़ते हो। फिल्म का नायक भले ही अपना बदला लेनें के लिये 50- 100 गुंडों को एकसाथ नही मारता लेकिन लड़ाई वह भी लड़ रहा है। 

यह उसकी लड़ाई अपनी इच्छाओं से है, एक ऐसी जगह अपनी सकारात्मक उपस्थिती स्थापित करने में जहां उसे नियति ने ला छोड़ा है। फिल्म में बेसिल जोसेफ़ का अभिनय शानदार है, इसमें दिखायें गये दृश्य आखों को सुकुन देते है।


अरविंद साहू (AD) Freelance मनोरंजन एंटरटेनमेंट Content Writer हैं जो विभिन्न अखबारों पत्र पत्रिकाओं वेबसाइट के लिए लिखते है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सक्रिय है, फिल्मी कलाकारों से फिल्मों की बात करते है। एशिया के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखन लाल चतुर्वेदी के भोपाल कैम्पस के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के छात्र है।

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